Monday, March 17, 2008

छोड़ा गंगा किनारे वाला

बाल-श्रम उन्मूलन में मीडिया की भूमिका

बाल-श्रम खत्म करने की दिशा में आखिर मीडिया की क्या भूमिका रही है? ये सवाल सभ्य समाज को हमेशा कौंधता रहा है। क्या बाल दिवस और मजदूर दिवस के दिन होटलों में जूठे बर्तन मांजते बच्चों की तस्वीरें छाप भर देने से मीडिया की भूमिका खत्म हो जाती है? मीडियावाले कहते हैं कि हमने तो अपना काम कर दिया। खबरें छाप दी कि फलां-फलां जगह बाल-श्रमिक काम कर रहे हैं और हजार शब्दों के मानिंद बयां करने वाले बाल मजदूरों की तस्वीरें छाप दीं, क्या यही कम है। मीडियाकर्मियों की दलील यह भी होती है कि खबरें और तस्वीरें छाप देने के बाद अब ये शासन-प्रशासन का काम होता है कि वो बाल-श्रम पर अंकुश लगाएं और बाल-श्रमिकों आजाद करवाएं।

हो सकता है कि मीडिया अपनी तरफ से कुछ हद तक सही हो। हो सकता है कि मीडिया की अपनी कुछ सीमाएं हों, दायरा हो पर एक सवाल तो हमेशा उठता ही है कि क्या बस खबर भर दे देना ही पत्रकारिता की निशानी है। क्या खबरों के पीछे तह तक जाने और फिर खबर दे देने के बाद उसका फॉलो करने का जो पत्रकारीय मानदंड होता है उससे मीडिया कैसे मुंह मोड़ सकता है? लेकिन आखिर मीडिया दोहरा चरित्र कैसे निभा सकता है? मिसाल के तौर पर मान लें कि किसी हीरो-हीरोइन की शादी होनी है। ऐसे में मीडिया जिस तरह से शादी से पहले और शादी के बाद तक खबरें देने की नौटंकी करता है, जिस तरह से रसोइए से लेकर फूलवाले के इंटरव्यू छापता-दिखाता है और फिर उस जगह तक को नाप आता है जहां हनीमून मनाने के कयास लगाए जाते हैं तो इससे एक बात तो साफ हो जाती है कि कहीं-न-कहीं मीडिया खुद तय करता है कि खबरों को किस तरह और कैसे लिया-लिखा-दिखाया जाए।

अखबारों के लिए मामला एबीसी सर्कुलेशन का हो सकता है तो टीवी वालों के लिए टीआरपी का टंटा हो सकता है लेकिन बाल-मजदूरी के मसले पर इस तरह से सामाजिक जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने की मीडिया की हरकत को कहीं से भी जायज नहीं ठहराया जा सकता। एक विदेशी मूल की लेखिका को भारत की नागरिकता मिले या नहीं मिले, इसपर संसद में काम ठप हो जाता है लेकिन फुटपाथ पर अपना फ्यूचर बर्बाद करते बाल-श्रमिकों पर सवाल उठाने के लिए एक सांसद भी उठ खड़ा नहीं होता। मीडिया आखिर इस तरफ लोगों का ध्यान क्यों नहीं दिलाता? क्यों नहीं देश को याद दिलाता कि संसद किस तरह से बेरहम है इन बाल-श्रमिकों के प्रति। महिला एवं बाल विकास मंत्रालय बना देने से न तो सरकार की भूमिका खत्म हो जाती और न ही खबरें छाप भर देने से मीडिया की। संविधान का चौथा स्तंभ कहलाने का दावा करने वाले मीडिया को कम-से-कम इस बारे में तो सोचना ही होगा।